देहरादून 06 2021,
दिल्ली: उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अजय रस्तोगी और अभय एस ओका की पीठ ने निर्णय दिया है कि, वसीयत को किसी समझौते के आधार पर निरस्त नहीं किया जा सकता है। इसे केवल भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-70 के तहत निर्दिष्ट आधार पर ही निरस्त किया जा सकता है। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-70 के तहत उन आवश्यक अवयवों को स्पष्ट किया गया है जो वसीयत को निरस्त करने के लिए आवश्यक हैं।
अदालत ने जिस मामले में यह टिप्पणी की उसमें मांगीलाल नामक एक शख्स ने छह मई 2009 को एक वसीयतनामा किया था। इसमें उसने अपनी जमीन का एक निश्चित हिस्सा अपनी बेटी रामकन्या और जमीन का कुछ हिस्सा अपने भाई के बेटों- सुरेश, प्रकाश और दिलीप के नाम किया था।
इसके बाद सुरेश और रामकन्या ने 12 मई 2009 को आपस में एक समझौता किया, जिसके तहत उन्होंने जमीन का आपस में बंटवारा कर लिया
रामकन्या ने फरवरी 2011 को एक सेल डीड तैयार कर अपनी जमीन का हिस्सा बद्रीलाल को बेच दिया। वर्तमान मामले में बद्रीनाथ अपीलकर्ता हैं। ट्रायल जज ने माना था कि सुरेश और रामकन्या के बीच समझौता अवैध था और रामकन्या को जमीन बेचने का कोई अधिकार नहीं था। ट्रायल जज ने फरवरी 2011 के सेल डीड को शून्य भी करार दिया था और कहा था कि यह सुरेश के लिए बाध्य नहीं होगा।
इस आदेश के खिलाफ दायर अपील को जिला न्यायालय ने निरस्त कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता सुरेश ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में याचिका दायर करी। हाईकोर्ट की एकलपीठ ने उसकी अपील को खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि धारा-70 के अनुसार, वसीयत को किसी अन्य वसीयत या संहिता के आधार पर निरस्त किया जा सकता है या वसीयतकर्ता की ओर से लिखित रूप में, वसीयत को रद्द करने के इरादे की घोषणा से या वसीयत को निरस्त करने के इरादे से वसीयतकर्ता की उपस्थिति में और उसके निर्देश पर वसीयत को जलाने, फाड़ने या नष्ट करने पर ही निरस्त हो सकता है।