December 18, 2025

डॉ. पुष्पा खंडूरी, प्रोफेसर

मन पतवार बना लेती

तुम होते जो सचमुच रुठे

मैं तुम्हें मनाने आ जाती,

नैया को मझधार छोड़ती

मन पतवार बना लेती ॥

 

मेरे तो अपने ही हो तुम,

किन्तु अजनबी से यूं.

मुझको फिर तुम लगते क्यूं ?

काशा अजनबी ही होते जो,

मैं तुमको अपना लेती ॥

 

तुम जो होते सचमुच रूठे,

मैं तुम्हें मनाने आ जाती।

नैया को मझधार छोड़ती

मन पतवार बना लेती ॥

 

ऐसे ही हो तुम बेगाने,

या फिर झूठ तुम्हारी फितरत है।

सच कह देने की भी बोलो!

तुमने कब हिम्मत की है?

तुम होते जो सचमुच रूठे

मैं तुम्हें मनाने आ जाती,

नैया को मझधार छोड़ती

मन पतवार बना लेती ॥

 

पर मुझको जो भा जाये,

ऐसा मन तो तेरे पास कहाँ?

क्योंकि बहुत सरल अपना कहना है।

पर सरल नहीं अपनाना है।

कहते हो हमदम खुद को।

पर कठिन बहुत हमदम बन जाना है॥

 

तुम होते जो सचमुच रूठे,

मैं तुम्हें मनाने आ जाती।

नैया को मझधार छोड़ती,

मन पवार बना लेती ॥

डूबने में भी बड़ा मज़ा था,

जो हाथ थामता हमराही ।

लेकिन हमराही बन साथ निभाना भी,

तेरे बस की है बात नहीं ॥

 

तुम होते जो सचमुच रुठे,

मैं तुम्हें मनाने आ जाती।

नैया को मझधार छोड़ती,

मन पतवार बना लेती ॥

 

जो नहीं अजनबी से होते,

तुम सचमुच होते अपने से।

दुनिया को कर दरकिनार,

मूरत मन में मैं रख लेती।

ईष्ट समझकर आठों याम,

तुम्हें ही मैं भज लेती ॥

 

तुम होते जो सचमुच रूठे,

मैं तुम्हें मनाने आ जाती।

नैया को मझधार छोड़ती

मन पतवार बना लेती ॥

 

कवयित्री :-

डॉ. पुष्पा खंडूरी

‌‌प्रो‌फेसर डीएवी (पीजी) कॉलेज

देहरादून, उत्तराखंड।

 

 

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