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केवल न्यायिक निर्णय के आधार पर स्थापित रीति-रिवाजों को नहीं बदला जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट  - Separato Spot Witness Times
राज्य समाचार

केवल न्यायिक निर्णय के आधार पर स्थापित रीति-रिवाजों को नहीं बदला जा सकता है: सुप्रीम कोर्ट 

Delhi, 25 September 2025,

सुप्रीम कोर्ट ने निसंतान विधवा महिला की मृत्यु के बाद हिंदू उत्तराधिकार पर टिप्पणी की है। कानून के मुताबिक बिना वसीयत किए निसंतान विधवा की मृत्यु होने पर हिंदू महिला की संपत्ति उसके पैतृक उत्तराधिकारियों को नहीं बल्कि उसके पति के उत्तराधिकारियों को मिलती है। क्योंकि हिंदू कानून के तहत विवाह करने पर उसका ‘गोत्र’ बदल जाता है।

आज बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 15(1)(बी) को चुनौती देने वाली एक याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की है। याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने याचिकाकर्ताओं को कानून के अंतर्निहित सांस्कृतिक ढांचे पर विचार करने की याद दिलाई। पीठ ने कहा, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत ही हिंदू समाज विनियमित होता है। इसका क्या मतलब है? हालांकि आप उन सभी शब्दों का इस्तेमाल करना पसंद नहीं करेंगे लेकिन ‘कन्यादान’, जब एक महिला की शादी होती है तो उसका गोत्र बदल दिया जाता है, उसका नाम बदल दिया जाता है। वह अपने पति से भरण-पोषण मांग सकती है।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने दक्षिण भारत में प्रचलित रीति-रिवाजों का उल्लेख करते हुए कहा, वैवाहिक रीति-रिवाज के तहत कन्यादान के समय घोषणा भी की जाती है वधु एक गोत्र से दूसरे गोत्र में जा रही है। आप इन सब को नकार नहीं सकते.’ पीठ ने कहा कि एक बार जब महिला विवाहित हो जाती है तो कानून के तहत उसकी जिम्मेदारी उसके पति और उसके परिवार पर आ जाती है। न्यायमूर्ति नागरत्ना ने कहा कि हिंदू विवाह में ‘कन्यादान’ और ‘गोत्र-दान’ की परंपरा के तहत महिला अपने पति और उसके परिवार की जिम्मेदारी में आती है। उन्होंने यह भी कहा कि एक विवाहित महिला अपने भाई के खिलाफ भरण-पोषण का दावा नहीं करती। खासकर दक्षिण भारत में विवाह के रीति-रिवाजों में यह साफ किया जाता है कि महिला एक गोत्र से दूसरे गोत्र में जाती है।

याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने इस धारा को मनमाना और भेदभावपूर्ण बताया। उन्होंने तर्क दिया, ‘अगर किसी पुरुष की बिना वसीयत के मृत्यु हो जाती है तो उसकी संपत्ति उसके परिवार को मिलती है। बच्चों के बाद एक महिला की संपत्ति सिर्फ़ उसके पति के परिवार को ही क्यों मिलनी चाहिए?’ इस पर पीठ ने कहा, केवल न्यायिक निर्णय के आधार पर स्थापित रीति-रिवाजों को नहीं बदला जा सकता है। पीठ ने कहा, ‘कठोर तथ्यों के आधार पर खराब कानून नहीं बनने चाहिए। हम नहीं चाहते कि हजारों सालों से चली आ रही परम्पराएं हमारे फ़ैसले से प्रभावित हों। साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि कई विवादों में समझौते या मध्यस्थता का विकल्प चुना जा सकता है।

एक दूसरे याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने स्पष्ट किया कि चुनौती कानूनी प्रावधान को लेकर थी, धार्मिक प्रथा को लेकर नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उत्तराधिकार कानून राज्यों और समुदायों के बीच अलग-अलग होते हैं और वह इस धारा को तुरंत रद्द करने में हिचकिचा रही थी. पीठ ने अलग-अलग मामलों को सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थता केंद्र को भेज दिया और पक्षों को निर्देश दिया कि वे संवैधानिक प्रश्नों को ध्यान में रखते हुए समझौते की कोशिश करें।  उल्लेखनीय है कि, हिंदू सक्सेशन एक्ट के मुताबिक, किसी भी महिला की स्वयं अर्जित संपत्ति पर पहला अधिकार उसके बच्चों और पति का होता है। अगर वो न हों तो पति के माता-पिता का हक होता है। और उनके बाद महिला के पैतृक उत्तराधिकारियों का अधिकार होता है। जबकि पुरुषों की स्वयं अर्जित संपत्ति पर पत्नी और बच्चों के बाद उसके खुद के माता-पिता का अधिकार होता है। कानून में महिला और पुरुष के सक्सेशन से जुड़े इसी अंतरको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता की मांग है कि जिस तरह पुरुष की संपत्ति पर उसके पत्नी-बच्चों के बाद उसके माता-पिता, भाई-बहनों का अधिकार होता है, उसी तरह महिला की संपत्ति पर भी उसके पति और बच्चों के बाद उसके माता-पिता, भाई-बहनों का अधिकार होना चाहिए।

 

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