November 1, 2025

इगास बग्वाल 2025 के मुख्य रस्म-रिवाज़ और इतिहास

उत्तराखंड में पारंपरिक लोकपर्व इगास- बग्वाल (जिसे बूढ़ी दिवाली भी कहा जाता है) वर्ष 2025 में 1 नवंबर को धूमधाम से मनाई जाएगी। यह पर्व दीपावली के 11 दिन बाद आता है और इसे देवउठनी एकादशी के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और शोभायात्रा, भैला (मशाल) जलाकर ढोल-नगाड़ों की थाप पर लोकनृत्य होते हैं।राज्यभर में जनप्रतिनिधि अपने-अपने गांव जाकर इस पर्व को मनाते हैं।

उत्तराखंड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद के अनुसार इगास-बग्वाल लोकपर्व के साथ ही उत्तराखंड राज्य स्थापना के रजत जयंती वर्ष के कार्यक्रमों की शुरुआत भी होती है। रजत जयंती पर सांस्कृतिक कार्यक्रम 1 से 9 नवंबर तक हिमालयन सांस्कृतिक केंद्र, देहरादून में आयोजित किए गए।इगास पर्व पर सार्वजनिक अवकाश की परंपरा भी शुरू की गई है ताकि लोग अपने पैतृक गांवों से जुड़ सकें और इस पर्व को मनाने में भाग ले सकें। इस दिन लोग सुबह से मिठाई बनाते हैं और शाम को पूजा व भैला खेला जाता है। यह पर्व पहाड़ की दिवाली के रूप में स्थानीय संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग है।इस पर्व से जुड़ा धार्मिक महत्व भी है, क्योंकि देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु की योग निद्रा से जागने का दिन माना जाता है और इसके साथ ही शुभ कार्यों की शुरुआत होती है।उत्तराखंड में पारंपरिक लोकपर्व इगास- बग्वाल (जिसे बूढ़ी दिवाली भी कहा जाता है) वर्ष 2025 में 1 नवंबर को धूमधाम से मनाया गया। यह पर्व दीपावली के 11 दिन बाद आता है और इसे देवउठनी एकादशी के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और शोभायात्रा, भैला (मशाल) जलाकर ढोल-नगाड़ों की थाप पर लोकनृत्य होते हैं।राज्यभर में जनप्रतिनिधि अपने-अपने गांव जाकर इस पर्व को मनाते हैं। उत्तराखंड संस्कृति, साहित्य एवं कला परिषद के अनुसार इगास-बग्वाल लोकपर्व के साथ ही उत्तराखंड राज्य स्थापना के रजत जयंती वर्ष के कार्यक्रमों की शुरुआत भी होती है। रजत जयंती पर सांस्कृतिक कार्यक्रम 1 से 9 नवंबर तक हिमालयन सांस्कृतिक केंद्र, देहरादून में आयोजित किए गए।इगास पर्व पर सार्वजनिक अवकाश की परंपरा भी शुरू की गई है ताकि लोग अपने पैतृक गांवों से जुड़ सकें और इस पर्व को मनाने में भाग ले सकें। इस दिन लोग सुबह से मिठाई बनाते हैं और शाम को पूजा व भैला खेला जाता है। यह पर्व पहाड़ की दिवाली के रूप में स्थानीय संस्कृति का महत्वपूर्ण भाग है।इस पर्व से जुड़ा धार्मिक महत्व भी है, क्योंकि देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु की योग निद्रा से जागने का दिन माना जाता है और इसके साथ ही शुभ कार्यों की शुरुआत होती है।

इगास त्योहार से जुड़ी प्रमुख लोककथाएँ और स्रोतियाँ इस प्रकार हैं:

एक लोककथा के अनुसार, जब भगवान राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे, तो अयोध्या में दीपावली मनाई गई। लेकिन पहाड़ों की अलग-अलग वादियों में राम वापसी की खबर 11 दिन बाद पहुंची, इसलिए वहाँ इगास, यानी ‘दूजी दीपावली’ मनाई जाने लगी। यह देरी पर्व की एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशेषता बन गई।

दूसरी कथा में गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी की तिब्बती युद्ध में विजय का उल्लेख है। दीपावली के समय जब वे युद्ध में थे और वापस नहीं लौटे थे, तो लोग सोचने लगे कि वे मारे गए। लेकिन 11 दिन बाद विजय के साथ उनका स्वागत हुआ और इस खुशी के लिए इगास पर्व मनाया जाने लगा। इस प्रकार इगास लोक और सैनिक गौरव का प्रतीक भी है।त्योहार में भैला खेलना, जो सूखी लकड़ी के गट्ठर को रस्सी से बांधकर आग लगाकर पारंपरिक लोकनृत्य और गीतों के साथ खेला जाता है, इसकी भी खास लोकपीढ़ी है।

इगास पर्व में गोवंश की पूजा तथा देवताओं का आह्वान प्रमुख होता है, जो इस पर्व के सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक पहलुओं को दर्शाता है।

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